देश में प्रकृति की विनाशलीला के बीच भी सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं उनकी भविष्य की टीम भी परदेश में ही है। खुद राहुल और उनके दो अहम सिपहसालार रक्षा राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह औैर गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह अपने निजी काम से विदेश प्रवास पर हैं।
उत्तराखंड में कुदरत के कहर से बच निकलने वाला हर शख्श सिर्फ सेना या आइटीबीपी के जांबाजों के गुणगान कर रहा है। राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज ही किसी मुसीबत के मारे को महसूस नहीं हुई। राज्य शासन-प्रशासन की अक्षमता और लचरता पर सैलानियों से लेकर स्थानीय लोगों का आक्रोश भी बार-बार फट रहा है। यह संदेश जा रहा है कि राहत कार्यो में शुरुआती देरी से तमाम जानें चली गईं। उत्तराखंड आने वालों में दक्षिण भारत से लेकर पूरब-पश्चिम और उत्तर सभी क्षेत्रों के लोग हैं। सभी राज्यों में उत्तराखंड शासन-प्रशासन की लचरता का संदेश जा रहा है। केंद्रीय सुरक्षा दलों को भी राज्य सरकार से समन्वय में शुरुआती दिक्कत आई। जो भी राहत काम हुआ, पूरी तरह से केंद्रीय आपदा राहत बलों के कमान संभालने के बाद ही हुआ।
देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में त्रासदी के बाद चार-पांच दिन से श्रद्धालुओं के शवों की दुर्गति हो रही है। देवभूमि पर ससम्मान अंतिम संस्कार न हो पाने का हिंदू समाज का दर्द सिर्फ परिवार तक नहीं रुकेगा। सूत्रों के मुताबिक, इस संबंध में भी कांग्रेस नेतृत्व व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उत्तराखंड के नेताओं और शीर्ष मंत्रियों ने अपनी चिंता जताई है। कारण है कि पहले जीवित बचे हुए लोगों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों से हटाया जा रहा है। ऐसे में शवों की दुर्दशा का भावनात्मक मुद्दा पूरे देश में लोगों को उद्धेलित कर सकता है।
उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा तो प्रकृति की विनाशलीला ने उजाड़ दिया। वह कुछ समय बाद भले ही फिर से बस जाए, लेकिन इस दौरान राज्य सरकार के कुप्रबंधन का खामियाजा कांग्रेस को पूरे देश में भुगतना पड़ सकता है। पूरे देश से आए सैलानियों और श्रद्धालुओं के कटु अनुभव सिर्फ उत्तराखंड की सीमा तक ही नहीं रुकने वाले हैं।
कारण है कि आपदाग्रस्त क्षेत्रों में इलाकाई विधायकों और मंत्रियों ने अपने स्तर पर जो काम किया, वह किया। लेकिन कोई राजनीतिक नेतृत्व और सूझबूझ देने में राज्य के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा बिल्कुल नाकाम रहे। वैसे राज्य से जुड़े कई वरिष्ठ नेताओं का सुझाव था कि मंत्रियों को संबंधित जोन का प्रभारी बनाकर उन्हें वहीं रोका जाए और उनकी निगरानी में कामकाज सौंपा जाए। मगर इस आपदा के दौरान भी गुटबाजी हावी रही और शासन कोई फैसला लेना तो दूर तबाही का सही अनुमान तक नहीं लगा सका। उस पर भी आपदा के बावजूद बहुगुणा का दिल्ली में रुके रहना और सोमवार को कैबिनेट बैठक बुलाने जैसे मुद्दे भी राज्य सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
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