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Sunday, July 14, 2013

खाद्य सुरक्षा बिल नहीं विकास चाहिए - चेतन भगत

अनुचर     10:21 AM  No comments

गरीबी भयावह चीज है। जीवन की बुनियादी जरूरतें भी पूरी न कर पाना कितना खेदजनक है। ऐसी ज्यादा चीजें नहीं हैं जो मानवता को इतना नीचा देखने पर मजबूर करें। भारत उनमें शामिल है जिन्हें गरीबी की जन्नत कहा जा सकता है। हम चाहें तो 1947 के पहले की हमारी सारी गलतियों के लिए अंग्रेजों को दोष दे सकते हैं, लेकिन उन्हें गए भी 67 साल गुजर चुके हैं। हम अब भी दुनिया के सबसे गरीब देशों में से हैं। एशिया में चालीस के दशक में हमारी जितनी ही गरीबी के साथ शुरुआत करने वाले देशों ने कितनी तरक्की कर ली है। उनमें से कुछ ने तो नाटकीय प्रगति की है। गरीबी का जारी रहना खासतौर पर इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि गरीबों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले बहुत सारे स्मार्ट और ताकतवर लोग हैं। राजनेता, बुद्धिजीवी, गरीबी संबंधी विशेषज्ञ अर्थशास्त्री, एनजीओ...गरीबों की सहायता की कोशिश में लगे इतने लोग हैं कि यह सोचकर ही सिर चकरा जाता है कि आखिर हम गरीबी से पिंड क्यों नहीं छुड़ा पा रहे हैं। सार्वजनिक बहसों में वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी ही हावी रहते हैं। ये बुद्धिजीवी धरती पर गरीबों के सबसे हिमायती लोगों में से हैं। और फिर भी ऐसा लगता नहीं कि वे कोई हल निकाल पा रहे हैं। 


और वे निकाल पाएंगे भी नहीं, क्योंकि वे भले ही गरीब और उनकी समस्याओं के विशेषज्ञ हों, वे एक ऐसी चीज के बारे में ज्यादा नहीं जानते जिससे अंतत: गरीबी खत्म की जा सकती है। वह चीज है पैसा। हो सकता है आप को लगे कि यहां समस्या को बहुत सरल बनाकर पेश किया जा रहा है। यह हैरानी की ही बात है कि हमारे शीर्ष विचारक और बहसों में हावी रहने वाले संपत्ति को बढ़ाने, वास्तविक आर्थिक अधिकारिता और उत्पादकता के बारे में कितना कम जानते हैं। यदि जानते होते तो वे सबसे बेहूदा योजनाओं से एक- खाद्य सुरक्षा बिल को हमारे जादूगर राजनेताओं की टोपी से बाहर नहीं आने देते। बिल ऐसा है कि इसके विरोध में लिखना कठिन है। रंग-ढंग से वामपंथी लगभग कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी माफिया आपको मार ही डालेगा। विषय संवेदनशील है। आप तर्क दे सकते हैं कि यदि योजना पर अमल हुआ तो हम पहले से कमजोर अर्थव्यवस्था को और बर्बाद कर देंगे। जरा ऐसे तर्क देकर देखिए। जवाब मिलेगा- 'कम से कम एक गरीब माता अपने बच्चे को भरपेट भोजन के बाद रात को शांति से सोते हुए तो देखेगी।' जरा इस मुद्दे पर बहस करके तो देखिए! आपको चाहे देश की आर्थिक बर्बादी नजर आ रही हो, लेकिन आकड़ों से भरा आपका पे्रजेंटेशन, गांव में कुपोषित भूखे बच्चे के फोटो से कैसे मुकाबला कर सकता है। मुझे लगता है कि जब मुकाबले में कोई यह सवाल उछाल देता है, 'आप गरीबों की मदद नहीं करना चाहते न!' तो सारा अर्थशास्त्र, बुनियादी गणित, कॉमनसेन्स, तार्किकता और व्यावहारिकता धरी रह जाती है। 

कहा जाएगा कोई गरीबों की मदद नहीं करना चाहता। इससे बदतर यह होगा कि आपको गरीब विरोधी करार देने के बाद आपको बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हिमायती घोषित कर दिया जाए। आप अपने मुद्दे पर और डटे रहें तो आपको दक्षिणपंथी करार दे दिया जाएगा। ऐसा पूंजीवादी जिस पर एफडीआई का भूत सवार है। हो सकता है सांप्रदायिक होने का दाग भी लगा दिया जाए। तो ऐसे भारत में आपका स्वागत है जहां कोई तर्क के आधार पर बहस नहीं करता। हम भावनाओं और नैतिक श्रेष्ठता के आधार पर बहस करते हैं। तर्क रखने की बजाय हम विरोधी पर हमला बोल देते हैं। तो साहब, किसी भी समझदार व्यक्ति की तरह इस बिल पर मेरा अधिकृत बयान यही है: लाओ भाई, खाद्य सुरक्षा बिल लाओ। सिर्फ दो-तिहाई आबादी को ही क्यों पूरे भारत को ही मुफ्त अनाज की इस योजना के दायरे में लाया जाए। फिर सब्जियां और फल भी क्यों नहीं दिए जाएं? और क्या गरीब बच्चे ताजा दूध के हकदार नहीं हैं? हमें वह भी मुहैया कराना चाहिए। प्रत्येक भारतीय परिवार को अनाज, फल, सब्जियां, दूध और स्वाथ्यवद्र्धक संतुलित भोजन केलिए जो भी लगता है वह मिलना चाहिए। यह मुफ्त होना चाहिए। यदि बहस में सबसे भला इरादा रखने वाले की ही जीत होने वाली हो तो मैं यह सुनिश्चित करना चाहूंगा कि मैं ही वह आदमी माना जाऊं। क्या अब मैं भला आदमी नहीं हूं? 

जब मेरे दिमाग में उत्तेजित करने वाले ऐेसे सवाल उठते हैं कि कौन इसका भुगतान करेगा या इतना अनाज कैसे मुहैया कराया जाएगा या पहले से ही कर्ज में डूबी सरकार की हालत इसके बाद क्या होगी तो मैं अपने दिमाग को चुप रहने के लिए कहता हूं। मैं अगले कुछ वर्षों में ही लगने वाले लाखों करोड़ों रुपए के लंबे-चौड़े आकड़ों को भी नजरअंदाज कर देता हूं। इस पैसे का पयोग ग्रामीण शिक्षा, सिंचाई या सड़कों के जाल के रूपांतरण में किया जा सकता है। इससे गरीबों को रोजगार मिलेगा और वे समृद्ध होंगे। ऐसे विचार जब मुझे आएंगे तो मैं दिल से नहीं दिमाग से सोचने के लिए खुद को कोसने लगूंगा। गरीबी हटाना जरूरी नहीं है। महत्वपूर्ण है यह जताना कि कौन गरीबों की परवाह ज्यादा करता है। 

वित्तीय घाटा बढ़ जाए, रेटिंग एजेंसियां बाजार में हमारी साख कम कर दें, विदेशी निवेशक हमारे यहां निवेश करना बंद कर दें तो क्या? हमें उनकी जरूरत नहीं है। वे सब तो वैसे भी हमारे दुश्मन हैं। सरकार कभी भी उत्पादक चीजों पर खर्च नहीं करेगी। हम विदेशियों को डराकर भगा देंगे। हमारे यहां कभी बेहतर आधारभूत ढांचा, स्कूल व अस्पताल नहीं होंगे। तो क्या हुआ? हम गरीबों की परवाह तो करते हैं। 

हम तब तक गरीबों की परवाह करते रहेंगे जब तक कि पूरा पैसा खत्म नहीं हो जाता। देश दिवालिया हो जाएगा। रोजगार नहीं होगा और अधिक लोग गरीब हो जाएंगे। पर क्या यह अच्छी बात नहीं होगी? इससे हमें और अधिक गरीबों का ख्याल रखने का मौका मिलेगा। तो मेरा खाद्य, सब्जी, और दूध सुरक्षा बिल लाइए। क्या कुछ छूट रहा है? अरे हां, सूखे मेवे। तो कुछ सूखे मेवे सारे भारतीयों के लिए प्लीज! 




अनुचर


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