क्या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी ही सरकार के अध्यादेश को फाड़़ कर फेंक देने का बयान देकर मजमा लूट लिया है। दागियों के मुद्दे पर कांग्रेस को घेर रही बीजेपी को क्या राहुल के इस कमांडो एक्ट ने धराशाई कर दिया। क्या राहुल के मुंह से एकबारगी ये सब निकल गया या फिर इस पूरे नाटक की स्क्रिप्ट बड़़े करीने से पहले से ही लिखी जा रही थी? सवाल कई हैं और जवाब भी छिपे नहीं हैं।
राहुल गांधी का अचानक प्रेस क्लब पहुंचना। एंग्री यंग मैन की तरह दागियों को बचाने वाले अध्यादेश तो तार-तार कर देना। ये बताता है कि इस अध्यादेश का हश्र अब क्या होने वाला है। लेकिन क्या ये सब एक झटके में हुआ? जवाब है-बिल्कुल नहीं।अध्यादेश लाने का फैसला कैबिनेट ने लिया। इसके पहले इस अध्यादेश को कांग्रेस कोर ग्रुप ने हरी झंडी दी थी। जिसमें सोनिया गांधी खुद बैठती हैं। क्या ये हो सकता है कि फूड सिक्योरिटी पर अध्यादेश सोनिया गांधी के कहने पर आए और दागियों को बचाने के अध्यादेश सिर्फ प्रधानमंत्री के कहने पर?
दरअसल अध्यादेश पर हो रहे विरोध को भांपने के बाद राहुल गांधी से लेकर सरकार के एक तबके में खलबली मची। वहीं से डैमेज कंट्रोल का तरीका ढ़ूंढ़ा जाने लगा। पहला संकेत दिया राहुल के करीबी दिग्विजय सिंह ने। सिंह ने इस अध्यादेश का विरोध करते हुए कहा कि सरकार ने इस मामले में जल्दबाजी की है।
फिर कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य अनिल शास्त्री ने कहा कि इससे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर असर पड़ेगा। फिर राहुल ब्रिगेड की तरफ से सरकार के मंत्री मिलिंद देवड़ा ने भी खुलकर इसका विरोध किया और शुक्रवार सुबह पार्टी प्रवक्ता संदीप दीक्षित ने अध्यादेश के खिलाफ बोलकर ये साफ कर दिया कि कुछ पक रहा है। ये राज तब खुल गया जब सरकार के मंत्री शशि थरूर ने साफ कह दिया कि वो तो पहले से ही इस अध्यादेश को लाए जाने के खिलाफ थे।
पहले बातें संकेतों में हुईं। फिर उसे मूर्त रूप दिया गया। राहुल गांधी ने इस कदम से विपक्ष के हमले की धार को कुंद करने की कोशिश की। सरकार और पार्टी के भीतर मचे भूचाल के असर को कम करने का दायित्व खुद उन्होंने उठाया और दे दिया बहुचर्चित बयान कि अध्यादेश फाड़कर फेंक देने लायक है।
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